[Important]   12TH Class Hindi "भाग्य और परुषार्थ "/" भाग्य और परुषार्थ जैन कुमार"

भाग्य और परुषार्थ 

भाग्य और परुषार्थ विपरीत नहीं तो अलग तो समझे ही जाते हैं। मैं ऐसा नहीं समझ पाता। २
भाग्य का उदय मेरे निकट निरर्थक शब्द नहीं है। स्पष्ट ही भाग्योदय शब्द का आशय है कि मैं प्रधान नहीं हैं, भाग्य प्रधान है। पुरुषार्थ मैं कर सकता हूँ, लेकिन भाग्योदय उससे स्वतंत्र तत्त्व है। हो सकता है कि लोगों को यह मानने में कठिनाई हो, मुझे इसे स्वीकार करने में उल्टे अपनी धन्यता मालूम होती है।
एक शब्द है सूर्योदय। हम जान गये हैं कि उदय सूरज का नहीं होता। सूरज तो अपेक्षतया अपनी जगह रहता है, चलतीघमती धरती ही है। फिर भी सूर्योदय शब्द हमको बहुत शुभ और सार्थक मालूम होता है।
भाग्य को भी मैं इसी तरह मानता हूँ। वह तो विधाता का ही दूसरा नाम है। वे सर्वान्तर्यामी और सार्वकालिक रूप में ता हैं. उनका अस्त ही कब है कि उदय हो। यानी भाग्य के उदय का प्रश्न सदा हमारी अपनी अपेक्षा से है। धरती का रुख सूरज क की तरफ हो जाय, यही उसके लिए सूर्योदय है। ऐसे ही मैं मानता हूँ कि हमारा मख सही भाग्य की तरफ हो जाय तो इसी को भाग्योदय कहना चाहिए।


लेकिन ऐसा हुआ नहीं करता। पुरुषार्थ की इसी जगह संगति है। अर्थात् भाग्य को कहीं से खींचकर उदय में लाना नहीं की है, न अपने साथ ही ज्यादा खींचतान करनी है। सिर्फ मुँह को मोड़ लेना है। मुख हम हमेशा अपनी तरफ रखा करते हैं। अपने न से प्यार करते हैं, अपने ही को चाहते हैं। अपने को आराम देते हैं, अपनी सेवा करते हैं। दूसरों को अपने लिए मानते हैं, सबकुछ को अनुकूल चाहते हैं। 


चाहते यह हैं कि हम पूजा और प्रशंसा के केन्द्र हों और दूसरे आस-पास हमारे इसी भाव में मँडराया करें। इस वासना से हमें छटटी नहीं मिल पाती। तब भी होता है कि ऊपर से गहरा दःख आ पड़ता है। वह हमें भीतर तक विदीर्ण कर जाता है कुछ क्षण के लिए जैसे हमारी अहंता को शून्य कर डालता है। वह शून्यावस्था भगवत् कृपा से ही प्राप्त होती है। इसलिए मैं मानता हूँ कि दुःख भगवान् का वरदान है। अहं और किसी औषध से गलता नहीं, दुःख ही भगवान काअमृत है।

 वह क्षण सचमुच ही भाग्योदय का हो जाता है, अगर हम उसमें भगवान् की कृपा को पहचान लें। उस क्षण यह सरल होता है कि हम अपने से मुड़ें और भाग्य के सम्मुख हों। बस, इस सम्मुखता की देर है कि भाग्योदय हुआ रखा है। असल में उदय उसका क्या होना है, उसका आलोक तो कण-कण में व्याप्त सदा-सर्वदा है ही। उस आलोक के प्रति खुलना हमारीआँखों का हो जाय बस उसी की प्रतीक्षा है। साधना और प्रयत्न सब उतने मात्रा के लिए हैं। प्रयत्न और पुरुषार्थ का कोई दूसरा लक्ष्य मानना बहुत बड़ी भूल करना होगा, ऐसी चेष्टा व्यर्थ सिद्ध होगी।दुनिया में हम देखते तो हैं। लोग हैं कि बहुत हाथ-पैर पटक रहे हैं, दिन-रात जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं। कोशिश में तो कमी नहीं है पर सिद्धि कुछ नहीं मिल पाती। तो आखिर ऐसा क्यों है? कोशिश की पुरुषार्थ में सिद्धि मानें तो यह दृश्य नहीं दीखना चाहिए कि हाथ-पैर पटकनेवाले लोग व्यर्थ और निष्फल रह जायें। अगर वे व्यर्थ प्रयास करते रहते हैं तो अंत में यह कह उठे कि क्या करें, भाग्य ही उल्टा है, तो इसमें गलती नहीं मानी जायगी। सच ही अधिकांश यह होता है कि उनका और भाग्य का संबंध उल्टा होता है।

 भाग्य के स्वयं उल्टे-सीधे होने का तो प्रश्न ही क्या है? कारण, उसकी सत्ता सर्वत्र व्याप्त है। वहाँ दिशाएँ तक समाप्त हैं। विमुख और सम्मख जैसा वहाँ कछ संभव नहीं है। तब होता यह है कि ऐसे निष्फल प्रत्यनावाले स्वयं उससे उल्टे बने रहते हैं अर्थात अपने को ज्यादा गिनने लग जाते हैं, शेष दूसरों के प्रति अवज्ञा और उपेक्षाशील हो जात में अधिकांश यह दोष रहता है. उसमें एक नशा होता है। नशा चढने पर आदमी भाग्य और ईश्वर को भूल जाता आर विनय की आवश्यकता को भी भल जाता है। यों कहिए कि जान-बझकर भाग्य से अपना मुंह फेर लेता है। तब, उस सहयोग न मिले तो उसमें विस्मय ही क्या है। ऊपर के शब्दों में आप कपया कर्म की अवज्ञा न देखें, उसके साथ अकम क महत्त्वके महत्त्व को भी पहचानें।

 किसी भी प्रश्न पर विचार करते हए ये उसके आंतरिक पक्ष को विशेष महत्त्व देते हैं। इसलिए इनक नवी मदर्शन, मनोविज्ञान और अध्यात्म के शब्दों का प्रयोग अधिक हआ है। विचार की निजी शैली के कारण ही इनके निबंधों में व्यक्तिनिष्ठता आ गयी है।

जैनेन्द्र के निबंधों की भाषा मूलतः चिन्तन की भाषा है। ये सोचा हुआ न लिखकर सोचते हुए लिखते हैं। इसलिए इनके विचारों में कहीं-कहीं उलझाव आ जाता है। इनकी विचारात्मक शैली में प्रश्न, उत्तर, तर्क, युक्ति, दृष्टान्त आदि तत्वों का समावेश उसे गूलता प्रदान करता है। शब्द चयन में जैनेन्द्र का दृष्टिकोण उदार है। ये सही बात को सही ढंग प उपयुदन शब्दावली में कहना चाहते हैं। इसके लिए इन्हें चाहे अंग्रेजी से शब्द लेना पड़े, चाहे उर्दू से, चाहे संस्कृत के तपम शब्दों का चयन करना पड़े, चाहे ठेठ घरेलू जीवन के शब्दों को ग्रहण करना हो, इन्हें इसमें कोई संकोच नहीं होता। वस्तुतः जैनेन्द्र की शैली इनके व्यक्तित्व का ही प्रतिरूप है। हिन्दी साहित्य के विद्वानों के समक्ष 'जैनेन्द्र ऐसी उलझन हैं जो पहले से भी अधिक गूढ़ है।' इनके व्यक्तित्व का यह सुलझा हुआ उलझाव इनकी शैली में भी लक्षित होता है है। अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए इन्होंने विचारात्मक, विवरणात्मक, प्रश्नात्मक, भावात्मक, मनोविश्लेषणात्मक = आदि शैलियों का प्रयोग किया है।
अग्नुन निबंध 'भाग्य और पुरुषार्थ' में जैनेन्द्र ने भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में मौलिक दृष्टि से विचार किया है। इनके अनुसार ये दोनों एक दूसरे के विरोधी न होकर सहवर्ती हैं। भाग्य तो विधाता का ही दूसरा नाम है। विधाता की है कृपा की यहचानना ही भाग्योदय है। मनुष्य का सारा पुरुषार्थ विधाता की कृपा प्राप्त करने में ही है। विधाता की कृपा प्राप्त स होते ही मनुष्य के कर्तापन का अहंकार मिट जाता है और उसका भाग्योदय हो जाता है।

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