राष्ट्र का
स्वरूप
राष्ट्र का स्वरूप = डॉ.वासूदेवशरण अग्रवाल.
यह पाठ राष्ट्र के ऊपर आधारित है इसमें डॉ.वासूदेवशरण अग्रवाल जी बतातें हैं कैसे एक राष्ट्र विश्वविख्यात हो सकता है।
भूमि, भूमि पर बसनेवाला जन और जन का सस्कृति, इन तीनों के सम्मिलन से गए का स्वरूप बनता है।
भूमि का निर्माण देवों ने किया है, वह अनत काल सह। उसके भौतिक संप, सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचत होना हमारा आवश्यक कर्त्तव्य है। भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरित होगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी। यह पृथिवी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है। जो राष्ट्रीयता पृथिवी के साथ नहीं जुड़ी वह निर्मूल होती है। राष्ट्रीयता की जड़ें पृथिवी में जितनी गहरी होंगी उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा। इसलिए पृथिवी के भौतिक स्वरूप की आद्योपांत जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महिमा का पहचानना आवश्यक धर्म है।
इस कर्त्तव्य की पूर्ति सैकड़ों-हजारों प्रकार से होनी चाहिए। पृथिवी से जिस वस्तु का संबंध है, चाहे वह छोटी हा या बड़ी, उसका कुशल-प्रश्न पूछने के लिए हमें कमर कसनी चाहिए। पृथिवी का सांगोपांग अध्ययन जागरणशील राष्ट्र के लिए बहुत ही आनंदप्रद कर्त्तव्य माना जाता है। गाँवों और नगरों में सैकड़ों केन्द्रों से इस प्रकार के अध्ययन का सूत्रपात होना आवश्यक है। __उदाहरण के लिए, पृथिवी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ानेवाले मेघ जो प्रतिवर्ष समय पर आकर अपने अमृत जल से इसे सींचते हैं, हमारे अध्ययन की परिधि के अंतर्गत आने चाहिए। उन मेघजलों से परिवर्द्धित प्रत्येक तृणलता और वनस्पति का सूक्ष्म परिचय प्राप्त करना ही हमारा कर्त्तव्य है।
____ इस प्रकार जब चारों ओर से हमारे ज्ञान के कपाट खुलेंगे, तब सैकड़ों वर्षों से शून्य और अंधकार से भरे हुए जीवन के क्षेत्रों में नया उजाला दिखायी देगा।
धरती माताकी कोख में जोअमूल्य निधियाँ भरी हैं , जिनके
कारण वह वसुन्धरा कहलाती है
उससे कौन परिचित न
होना चाहेगा? लाखों-करोड़ों वर्षों से अनेक प्रकार की
धातुओं को पृथिवी के
गर्भ में पोषण मिला
है। दिन-रात बहनेवाली नदियों ने
पहाड़ों को पीस-पीसकर
अगणित प्रकार की मिट्टियों से
पृथिवी की देह को
सजाया है। हमारे भावी
आर्थिक अभ्युदय के लिए इन
सबकी जाँच-पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है। पृथिवी की
गोद में जन्म लेनेवाले जड़-पत्थर कुशल शिल्पियों से सँवारे जाने
पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन
जाते हैं। नाना भाँति के अनगढ़ नग
विन्ध्य की नदियों के
प्रवाह में सूर्य की
धूप से चिलकते रहते
हैं, उनको जब चतुर कारीगर पहलदार कटाव
पर लाते हैं तब उनके
प्रत्येक घाट से नयी
शोभा और सुन्दरता फूट
पड़ती है, वे अनमोल हो
जाते हैं। देश के नर-नारियों के रूप-मंडन
और सौन्दर्यप्रसाधन में इन छोटे
पत्थरों का भी सदा
से कितना भाग रहा है;
अतएव हमें उनका ज्ञान होना भी आवश्यक है।
पृथिवी और आकाश के अंतराल में जो कुछ सामग्री भरी है, पृथिवी के चारों ओर फैले हुए गंभीर सागर में जो जलचर एवं रत्नों की राशियाँ हैं, उन सब के प्रति चेतना और स्वागत के नये भाव राष्ट्र में फैलने चाहिए। राष्ट्र के नवयुवकों के हृदय में उन सबके प्रति जिज्ञासा की नयी किरणें जब तक नहीं फूटतीं तब तक हम सोए हुए के समान हैं।
विज्ञान और
उद्यम दोनों को मिलाकर राष्ट्र के
भौतिक स्वरूप का एक नया
ठाट खड़ा करना है। यह काय
प्रसन्नता, उत्साह और अथक परिश्रम के
द्वारा नित्य आगे बढ़ाना चाहिए। हमारा
यह ध्येय हो कि राष्ट्र में
जितने हाथ है। उनमें
से कोई भी इस
कार्य में भाग लिये
बिना रीता न रहे। तभी
मातृभूमि की पुष्कल समृद्धि और
समग्र रूपमंडन प्राप्त किया जा
सकता है।
मातृभूमि पर निवास करनेवाले मनुष्य राष्ट्र का दूसरा अंग हैं। पृथिवी हो और मनुष्य न ही, तो राष्ट्र की कला असंभव है। पृथिवी और जन दोनों के सम्मिलन से ही राष्ट्र का स्वरूप संपादित होता है। जन के कारण ही पनि मातृभूमि की संज्ञा प्राप्त करती है। पृथिवी माता है और जन सच्चे अर्थों में पृथिवी का पुत्र है_
(माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।)
-भूमि माता है, मैं उसका पुत्र हूँ।
जन के हृदय में इस सूत्र का अनुभव ही राष्ट्रीयता की कंजी है। इसी भावना से राष्ट्र-निर्माण के अंकुर उत्पन्न hainयह भाव जब सशक्त रूप में जागता है तब राष्ट्र-निर्माण के स्वर वायुमंडल में भरने लगते हैं। इस भाव के द्वारा ही मनुष्य पृथिवी के साथ अपने सच्चे संबंध को प्राप्त करते हैं। जहाँ यह भाव नहीं है वहाँ जन और भूमि का संबंध अचेतन और जड़ बना रहता है। जिस समय भी जन का हृदय भूमि के साथ माता और पुत्र के संबंध को पहचानता है। उसी क्षण आनंद और श्रद्धा से भरा हुआ उसका प्रणाम-भाव मातृभूमि के लिए इस प्रकार प्रकट होता है
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यह प्रणाम-भाव
ही भूमि और जन का
दृढ़ बन्धन है। इसी दृढ़
भित्ति पर राष्ट्र का
भवन तैयार किया जाता है। इसी दृढ़
चट्टान पर राष्ट्र का
चिर जीवन आश्रित रहता है। इसी मर्यादा को
मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के
कर्त्तव्य और अधिकारों का
उदय होता है। जो जन
पृथिवी के साथ माता
और पुत्र के संबंध को
स्वीकार करता है, उसे ही पृथिवी के
वरदानों में भाग पाने
का अधिकार है। माता के
प्रति अनुराग और सेवाभाव पुत्र
का स्वाभाविक कर्त्तव्य है। वह एक
स निष्कारण धर्म है। स्वार्थ के
लिए पुत्र का माता के
प्रति प्रेम, पुत्र के अधःपतन को
सूचित करता है। जो जन
मातृभूमि के स साथ
अपना संबंध जोड़ना चाहता है उसे अपने
कर्तव्यों के प्रति पहले
ध्यान देना चाहिए।
_माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथिवी पर बसनेवाले जन बराबर हैं। उनमें ऊंच और नीच का भाव नहीं है। जो मातृभूमि के उदय के साथ जुड़ा हुआ है वह समान अधिकार का भागी है। पृथिवी पर भी निवास करनेवाले जनों का विस्तार अनंत है-नगर और जनपद, पुर और गाँव, जंगल और पर्वत नाना प्रकार के जनों से व भरे हुए हैं। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलनेवाले और अनेक धर्मों के माननेवाले हैं, फिर भी ये मातृभूमि के पुत्र हैं और इस कारण उनका सौहार्द भाव अखण्ड है। सभ्यता और रहन-सहन की दृष्टि से जन एक-दूसरे से आगे-पीछे हो कि
सकते हैं किन्तु इस कारण से मातृभूमि के साथ उनका जो संबंध है उसमें कोई भेदभाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पृथिवी के विशाल प्रांगण में सब जातियों के लिए समान क्षेत्र है। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है। किसी जन को पीछे छोड़कर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता। अतएव राष्ट्र के प्रत्येक अंग की सध हमें लेनी होगी। राष्ट्र के शरीर के एक भाग में यदि अंधकार और निर्बलता का निवास है तो समग्र राष्ट का स्वास्थ्य उतने अंश में असमर्थ रहेगा। इस प्रकार समग्र राष्ट्र को जागरण और प्रगति की एक जैसी उदार भावना से संचालित होना चाहिए।
जन का प्रवाह अनंत होता है। सहस्रो वर्षा स भूमि के साथ राष्ट्रीय जन ने तादात्य प्राप्त किया है। जब तक सूर्य की रश्मियाँ नित्य प्रातःकाल भुवन का अमृत स भर दता है तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर है। इतिहास के अनेक उतार-चढाव पार करने के बाद भी राष्ट्र-निवासी जन नया उठता लहरा से आगे बढ़ने के लिए अजर-अमर हैं। जन का संततवाही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है, जिसमें कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अनेक घाटों का निर्माण करना होता है।
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